द्वितिय अध्याय
।। शून्य की नाव भाव की जिज्ञासा ।।
ओ3म् नमः शम्भवाय च मयोभवायं च।
नमः शङ्कराय च मयस्कराय च।
नमः शिवाय च शिवतराय च।
यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः।।
कल्याण कारक प्रभु के लिए हमारा नमस्कार हो और सुखकारक सुख आनन्द का दान देने वाले प्रभु को हम सब का नमस्कार, और शान्ति दायक शान्ति को देने वाले उस सर्व शक्तिमान प्रभु को मेंरा नमस्कार, श्रद्धा और आदर भाव से और आदर भाव से मैं उसको नमस्कार करता हूं अत्यन्त मंगल रूप प्रभु के लिए हमारा बार-बार नमस्कार प्रणाम पहुचें।
मतलब सिर्फ इतना है कि तुम जीवन को उसकी पूर्णता में नहीं जी रहे हो, क्योंकि कल की चिन्ता में आज को पूर्ण रूप से आनन्दित होकर नहीं जी रहें हो, हाँ जूने में रुकावट अवश्य खड़ी करते हो, कल कभी नहीं आता है। यह एक तरीका है स्वयं को यातना, कष्ट, प्रताणीत और तरह-तरह के अविद्या आदि क्लेशों से क्लेशित रखने के लिए। इसके लिए ही तुम सब को लम्बे समय संस्कारीत किया गया है और आज भी यह सब निरन्तर किया जा रहा है, इसी के कल्चरल संस्कृति संस्कार नाम दिया है। और यह सब तुम सब के नश नाड़ीयों में रच वश गया है और तुम्हें ज्ञात ही नहीं है कि आखिर तुम हो कौन, तुम्हारा ना ही भुत है ना ही तुम्हारा भविष्य है। तुम्हारें पास तो केवल सिवाय तुम्हारा आज है, और आज को तुम अपने आने वाले कल कि चिन्ता में खर्च किये जा रहे हो की आने वाला कल अपने साथ साथ सुख सुबिधा और समृद्धि ले कर आयेगा। इससे बड़ा कोई बकवास हो सकता है। यह सब तुम्हारें जीवन को कबाड़ा सम्सान बनाना के लिए परयाप्त है। तुम स्वयं अपनी चिता सजाने में इतने अधीक ब्यस्त हो की भुल ही गए हो कि तुम्हारा वास्तवीक स्वरूप क्या है? इसमें तुम सब की कोई गल्ती नहीं है ऐसा तो तुम सब को बनाया गया। तुम सब का उपयोग किया जा रहा है। जिसे तुम अपना समझते हो वहीं तुम्हारें कब्र तैयार कर रहें है और यही बात समाप्त नहीं होती है उसमें तुम स्वयं भरपूर उनका सहयोंग कर रहें हो। क्योंकि यह जो समाज है और इसकी व्यवस्था रूपी जो सणयन्त्रकारी नीव वह एक दूसरें के शोषण पर ही आश्रीत है। जैसा की संस्कृत का एक कथन है की जीव जीवस्य भोजनम्। यह तो प्रकृत का स्वभाव है एक प्राणी दूसरें के जीवन का अन्रत करके ही अपने जीवन को बरकरार रख सकता है। लेकिन इसके लिए जो परम आवश्यक संयम सन्तुलन है वह मानव जीवन से प्रायः लुप्त हो रहा है। जिसकी वजह क्या ठीक है और क्या गलत है उसका ज्ञान हीं नहीं है? और यदि तुम्हें यह ज्ञान हो जाए तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाती हैं क्योंकि ज्ञान विज्ञान और अज्ञान अपूर्ण है। मानव जिससे पूर्ण होता है वह ब्रह्मज्ञान हैं। ब्रह्म का मतलब है ब्रह्म जैसा जीवन जीना जो इन तीनो से परें है। उसकी अनुभूति भर जाओ उसके लिए केवल आज और अभी में है जो किया जा सकता है वह इसी पल में होगा इसके लिए अलग से समय कभी नहीं मिलने वाला है। करना कुछ भी नहीं है सब कुछ जो भी कार्य उसके होने दो, उसमें स्वयं केवल द्रष्टा की तरह तटस्थ रखना है। मौन और शान्त हो जाओ चिन्ता करने का कोई प्रश्न नहीं है सारी चिन्तायें स्वतः अदृश्य हो जाएगी यह साइकोलाजीकल साइन्स है। इस क्षण में आने से तुम इस क्षण का भरपूर आनन्द ले पाओगें जो अद्वितीय होगा। यह जानकर तुमको आश्चर्य होगा की सव कुछ तो तुम्हारें पास था तुम ही अनुपस्थित थे ऐसा ही सभी प्रबुद्ध पुरुषों ने जाना है। तुम और तुम्हारी समद्धि तुम्हारें साथ हर पल रहती है उससे तुमको दुनीया की कोई ताकत अलग नहीं सकती है। मगर तुम हमेंशा से बिते हुए कल में जीने के आदि हो जिसके कारण जीवन में कुछ भी तरो-ताजा नया नवेला ओश की बुदं की भांति नहीं दिखता है सब तरफ से सड़ान्ध ही दिखाई देता है। उसे कितना ही सजाओं सवारों वह आंख को और इन्द्रिययों को मात्र धोखा को धोखा ही दे सकते है। मगर उसमें सजीवता नहीं पैदा कर सकते है। मैं चाहता हूं कि लोग यह समझे अपने अस्तित्व को को और उसकी भाषा को जीवन अभी और अभी में ही उसका आनान्द है उसके आगोस में तत्त्क्षण है। उसके लिए किसी विज्ञान या गणीत की आवश्यकता नहीं है, जरूरत है तो सिर्फ जागने कि और जो इस पल में जाग गया वह शरीर नहीं रहा वह शरीर का स्वामी हो गया और जो स्वामी है उसको तनाव कहां होता है। तनाव तो दास को होता है।
यस्मिन्सवार्णि भूतान्यात्मेंवाभूद्विजानतः। तत्र को मोहः कऋ शोक एकत्वमनुपश्यतः।
जैसा कि यह मन्त्र कह रहा है जो स्वयं को जानते है उसको यह लगता है। सब कुछ तो उसके पास है उसको किस वस्तु कि चिन्ता, तनाव, शोक मोह हो सकता है वह देखने से मूक्त हो जाता है।
यह तो निर्विचार, निर्विकल्प, निर्बिज समाधि कि अनुभूति का प्रथम पल है। जिसकी यीत्रा पर प्रत्येक पथिक को चलाना जो स्वयं को पाना चाहते हैं जो परम सत्य या कल्याण मार्ग का पथिक बनना चाहते है। उनके लिए ही झेनों में एक प्रसिद्ध कहानी कहते है। सबको चोरी करने की कला सीखना चाहिए। जापान में एक बहुत ही प्रसिद्ध चोर था वह इतना ज्यादा प्रसिद्ध था। जिस प्रकार से भारत में सबसे अच्छे महा पुरुषों को सम्मान प्राप्त है। जिस प्रकार भारत में राम जैसे महापुरुषों को पुजा जाता है, और पश्चिम में नोबेल प्राप्त वैज्ञानिकों सम्मान मिलता है और पुजा जाता है।
उस चोर के अन्दर एक कला थी वब चोरी करता था लेकिन वह अपने जीवन में पकड़ा नहीं गया अर्थात सरकारी मुरजीम नहीं बना वह महापुरुषों में अग्रणी है वह बड़ी सफाई से अपना कार्य करता था। वह चोर अपना कार्य इस तरह से करता था जैसे वह प्रभु की ध्यान, प्रार्थना, साधना, समाधिसिद्धि के लिए उपासना कर रहा हो। यहां तक उसको वहां के राजा के द्वारा सबसे श्रेष्ट पुरष्कार उस देश का उसको दिया गया था। जिस प्रकार से भारत में सबसे अच्छे उच्य महापुरुष जो सज्जन के प्रकृत के है उनको पुरष्कार में भारत रत्न, पद्म श्री, पद्म भुषण दिया जाता है। इसी प्रकार से उस चोर को भी पुरष्कृत किया गया था। लेकिन आज लोग अपनी योग्यता से कहीं ज्यादा पाते है और बाद में उसका दुर्पयोग करते उसको पाने में ही उनका जीवन उनके लिए पूर्रणतः सोख लिया जाता है जैसे कपड़े में से पानी को निचोण लेते है। कपड़ा सुख कर कड़ा हो जाता है। सुखने का मतलब है उसमें से तरलता नष्ट हो जाती है। लेकिन उस चोर की प्रकृत बहुत अलग थी, और यह बहुत प्रसिद्ध जापान के रहस्यदर्शि का क्लासिकल सिद्ध योग का दृष्टान्त है। जब वह चोर 80 साल का बृद्ध हो गया। उस समय केवल उसका एक युवा लड़का था। उसने एक दिन अपने पिता से कहा अब आपकी उम्र बहुत हो गई है मरने से पहले आप अपनी कला को मुझको भी सीखा दे क्योंकि वह चोर बहुत श्रेष्ट चोरों का गुरू भी था। उसके पिता ने उससे कहा यह तो बहुत कठीन कार्य है यह तो ऐसा ही है जैसे ध्यान में उतरना हो और यह सबके लिए कहां सुलभ है। उसके बेटे ने उसकी कोई बात नहीं मानी जैसा कि बेटे बाप की बात कहा मानते है जिसे ऐसा लगता है की उसका बेटा उसकी बात मान रहा है तो यह उसके लिए सबसे बड़ा भ्रम है। क्योंकि इस जगत में ना ही ऐसे बेटे है ना ही ऐसे बाप ही है। यह एक रहस्यदर्शि है इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है वह अपने आप में अतुलनीय है। अन्त में उसने जब देखा की उसका लड़का उसकी बात नहीं मान रहा है तब उसने कहा ठीक है तुम आज रात मेंरे साथ चलना। रीत्री के समय उस चोर के साथ उसका बेटा भी हो लिया जब वह एक बड़े घर के पास पहुंचा तब वह चोर वहीं पर रुक गया, और अपना औजार निकाल कर उस मकान की निव खोंदने लगा। वह निव खोदने का कार्य ऐसे कर रहा था जैसे वह अपने घर में कार्य कर रहा हो। उसका लड़का उसके पास ही खड़ा हो कर थर-थर कापं रहा था उसके पसिने छुट रहें थे। वह बार-बार चारों तरफ घुम-घुम कर देख रहा था उसको भय सताए जा रहा था की उसको चोरी करते कोई पकड़ सकता है। उसका पिता उस समय अपने निव खोदने के कार्य में ऐसे तल्लीन था जैसे वह ध्यान में हो चारों तरफ से बेखबर था। नीव में जब सुराख हो गया तो वह मकान के अन्दर घुस गया और अपने बेटे को भी मकान के अन्दर बुला लिया। जब उसका पूत्र मकान के अन्दर पहुच गया तब उसके पिता ने अपनी जेब से चाभी का एक बड़ा गुच्छा निकाला कर घर में जो एक बड़ी आलमारी थी उसके ताले को खोल कर अपने बेटे से कहा जाओ आलमारी के अन्दर और देखो क्या-क्या बहुमूल्य अपने काम की जो भी बस्तु है उस को उसको निकाल कर ले कर आवों। जब उसका बेटा आलमारी के अन्दर गया तो बाहर से उसके पिता ने बाहर से आलमारी के दरवाजे को बन्द कर दिया, और जिस निंव को खोद कर मकान में प्रवेस किया था उसी मार्ग से वह निकल कर बाहर आकर अपने घर का रास्ता पकड़ा। उधर उसका बेटा आलमारी के अन्दर फंस गया और अपने बाप को बुहुत कोसने लगा कि इस मुर्ख ने यह मुझको कहां पर लाकर फंसा दिया? उसका दिमांग बिल्कुल शून्य हो गया उसको कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह अब क्या करें? जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी वह उसके साथ हो रहा था। आलमारी के अन्दर उसको काफि देर गुजर गया लेकिन कोई नहीं आया उसको भय सताने लगा की थोड़े साय में ही सुबह होने वाली है और उस समय यदि किसी के हाथ वह लग गया तो उसके जिवन के लिए बड़ी समस्या उपस्थित हो जायेगी। जो भी कार्य यहां से निकलने के लिए किया जा सकता है किया जा सकता वह अभी रात्री में ही उसे अभी करना होगा अन्यथा बहुत देर हो जायेगी। यह विचार करके उसने आलमारी के अन्दर से आलमारी को इस तरह से खुरचने लगा जैसे कोई चुहा या बिल्ली आलमारी में फस गई है। खुरचने की आवाज को सुन उस घर की नौकरानी जाग गई और उसने विचार किया जरुर कोई बिल्ली आलमारी के अन्दर फंस गई है इसलिए उसने एक हाथ में चाभी का गुच्छा लिया और दूसरें हाथ में उसने एक दिपक लेकर वह आलमारी के पास आई और उसको खोलने लगी जैसे ही आलमारी खुली उस चोर के बेटे तुरन्त दिपक पर फुंक मार कर उसको बुझा दिया और उस औरत को धक्का देकर एक तरफ ढकलते हुए जिस मार्ग से मकान के अन्दर आया था उसी रास्ते से वह बाहर की तरफ अपने पैर को अपने सर पर रख कर वहां से भागा। जब उस नौकरानी ने चोर को देखा तो उसके तो हास उड़ गए उसने किसी तरह स्वयं को जल्दी से संतुलित किया और चिल्लाने लगी चोर-चोर उसकी आवाज को सुन कर उस घर के सभी सदस्य उठ खड़े हुए और पड़ोसी भी जाग गये और पूछा कहां है चोर नौकरानी तुरन्त उस सुराग को दिखाया जिससे वह बाहर की तरफ भागा था। सभी लोग उस चोर के बेटे के पिछे लग गये उसको पकड़ने के लिए चिल्लाते हुए पकड़ों मारों। चोर का लड़का तो ऐसे भाग रहा था जैसे नदी समन्दर की तरफ बरीष के दिनों में भागती है। तुफान के समय में जैसे धुल के कण हवा के साथ भागते है। जब उसने देखा की इस तरह से इन सब लोगों से स्वयं की जान को बचाना बहुत दुर्गम कठीन होगा। तभी उसकी निगाह रास्ते में एक कुए पर पड़ी जिसके पास ही एक बड़ा पत्थर पड़ा था उसने तुरन्त पलक झपकते ही उस पत्रथर के टुकड़े को उठा कर अपनी पूरी ताकत के साथ जोर से कुए में फेंक पत्थर के कुए में गीरते ही बहुत तेज आवाज हुई जो लोग उस चोर पिछे उसको पकड़ने के लिए भाग रहे थे जब तक वह सब कुए के पास पहुचे उससे पहले ही वह चोर का लड़का स्वयं को कुए पास के ही झाड़ीयों में छुपा लिया और लोगों ने समझा की वह चोर कुएं में कुद गया है सभी लोगों ने उस कुए को चारों तरफ से घेर लिया और चोर को कुएं में से निकालने का विचार करने लगें।
जबकी चोर का लड़का उन झाड़ीयों से निकल कर पिछे के मार्ग से अपने घर पहुचा तो क्या देखता है? उसका पिता अपने मुंह पर कम्बल डाल कर खर्राटे मार-मार कर आराम सो रहा है। उसने अपने पिता के मुंह से कम्बल को खीचा और पूछने लगा की तुमने क्या किया? मुझको फंसा कर चले आए और यहां आराम से सो रहें हो, वहां मेरी जान पर मुसिबत आ पड़ी थी। उसके पिता ने उघते हुए कहा तो तुम आ गए चलो अब सो जाओ सुबह इसके बारें में बात करेंगे। इसके बाद पुनः मुंह पर कम्बल डाल कर सोने लगा। उसके बेटे ने कहा यह क्या कर रहें हो तुम मुझे बताओ वहां मुझको छोड़ कर क्यों चले आए नहीं तो मैं सो नहीं पाउगा? उसके पिता ने कहा यह कार्य रोज नया होता है और रोज नया घर नयी अवस्था में जाते हैं इस कार्य में पूराना किसी प्रकार कोई अनुभव काम नहीं आता है वह भले ही मेंरा ही अनुभव क्यों ना हो? यहां तो स्वयं का निजी ज्ञान और अनुभव ही काम आता है। जो तुम ने कर लिया है अब तुम पक्के चोर बन गए हो कल से तुम अकेले ही चोरी करने के लिए जा सकते हो। होगा भी क्यों नहीं तुम मेरें बेटे हो और तुम्हारें अन्दर मेरा खुन है मेरा सारा गुण तुम्हारें अन्दर होना ही था। सुफी झेन कहते है कि जिस प्रकार चोरी करने में किसी प्रकार का पुराना अनुभव काम नहीं आता है क्योंकि रोज नए घर में और नई परीस्थिति जाना पड़ता है। उसी प्रकार से सत्य की जिसको प्यास है उसके लिए भी सब कुच हर पल नया होता है। वहां पर किसी दूसरें का अनुभव कभी भी स्वयं के काम नहीं आता है।
अहम् इन्द्रं न शरीरम् अर्थात हम शरीर नहीं इसके स्वामी है। जिसके पास सिर्फ शरीर है भले ही वह स्त्री या पुरुष वह अपूर्ण और अन्धे के समान है, और जिसके पास आखें हैं वह कोइ स्त्री हो या पुरुष हो वहीं इन्द्र, वहीं स्वामी, वही राजा है। स्त्री पुरुष जहां पूर्ण होते है जहां पर एक दूसरें में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। शिव लिंग है जो किसी योनी प्रधान नहीं है। शिवलिंग तो मात्र एक प्रतिकात्मक है। वह मात्र संकेत के लिए है जो अन्धे की तरह अपने जीवन को जी रहें हैं। जिनकी अन्तरदृष्टि किसी कारण बस कार्य सही तरीके से नहीं कर रही है। वह शिवलिंग को देख कर समझ सके की वास्तवीकता क्या है? जैसा की प्रतिक को प्रस्तुत किया गया है आज भी दुनिया के किसी कोने में देख सकते है। किसी ना किसी रूप से प्रेरणा देने के लिए ही स्त्री और पुरुष के लिंग को आपस में एक साथ संभोग के समय की घटना को मन्दिरों में दर्साया या स्थापित किया गया है और वह पुजा और ध्यान के योग्य है ऐसा लोग आज भी करते है। वह सब मात्र प्रतिक और अलंकार से सुसज्रजीत किया गया है उसके पिछे एक दूसरा ही रहस्य छुपा है। मानव शरीर सबसे महत्त्वपूर्ण संबेदनशील बहुमूल्य सबसे अधीक आकर्षण पूर्ण है। वास्तवीकता तो यह की हम सब को अपने लिंग को ध्यान के माध्यम से जानना चाहिए। लिंग का अर्थ है जाती से और इस पृथ्वी पर केवल एक जाती है जिसे मानव कहते है। जैसा की तुलसी दास कहते है कि लिंग थापी बिधीवत करी पुजा। शिव समान शिव मोही न दूजा।। अर्थात लिंग को स्थापीत करके ध्यानस्थ हो करों पुजा। अर्थात स्वयं को भली प्रकार से जानो उसके समान कोई नहीं है। जो मन से आत्रमा को छुड़ाने वाला है इसको ब्रह्मचर्य से जोड़ा गया है शिव का मतलब है जो सबका कल्याण करने वाला है। जननेन्द्रियों को भी कहते है इसका मतलब है जिससे सभी जीव को जन्रम लेने का सुअवसर मिलता है।
जैसा की न्याय दर्शन कार गौतम कहते है इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-सुख-दुःख-ज्ञानान्यात्मनो लिग्ड़म्।। अर्थात इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख का जिसको ज्ञान होता है वही लिंग मती आत्मा है। भ्रम होना स्वाभाविक है। क्योंकि लिंग से काम संभोग इस ब्रह्माण्ड की सबसे श्रेष्ट अद्भुत अद्वितीय और दिव्य घटना है जिसको सबसे अधीक बदनाम और कुरूप कर दिया है। इस पृथ्वी पर संभोग और समाधि दोनो एक दूसरें के पूरक है। मानव का मुंह बहुत सुन्दर है जिसको सभी बहुत पसन्रद करते हैं । पैर जो कुरूप समझा जाता है वह जितना आकर्षण नहीं है। उसे कम पसन्द करते है। लेकिन मानव शरीर के पूर्रणता के लिए परम आवश्यक है। ऐसा ही स्थान सब के जीवन में संभोग का भी है। संभोग के द्वारा ही प्रत्येक मानव का जन्रम हुआ है। और जिससे स्वयं की उत्पत्ती हो रही है उसी को हम सब बुरा कुरूप और गलत कहते है। इसको मानव जीवन से यदि किसी तरह से अलग कर दिया जाये तो मानव किस स्थिती को उपलब्ध करेंगा उसकी कल्पना भी हम सब नहीं कर सकते है। क्योंकि संभोग किसी प्रकार से यज्ञ से कम नहीं है। इसके लिए आवश्यक है जो ऋषि कह रहें है भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा।। अर्थात हम सब यज्ञ भाव से जिससे सभी जीव जन्तु का कल्याण होता है सभी प्रणीयों का कल्याण हो। ऐसे दृश्यों को कभी ना देखें जिससे किसी का अकल्याण हमारी दृष्टि में ना आये।
जब तक इसको नहीं समझेगें तब तक शिव जो सबका कल्रयाण करने वाला है उसको समझना मुस्किल ही नहीं नामुमकिन है। क्रयोंकि लिंग ही वह मुख्य आधार है जिससे शिवलिंग का जन्म होता है। जब लिंग समझ में आ गया तो शिव स्वतः समझ में आ जायेंगा। जैसा की स्वामी दयानन्द ने समझा उनको जो पहली झलक सच्चे शिव को प्राप्त करने की इच्छा शिवलिंग की मुर्ति को देख कर ही मिली उन्होंने देखा की यह तो मात्र प्रतिक है। सच्चा शिव तो प्रत्येक कण में व्याप्त है उसके लिए किसी बिषेश मुर्ति की पुजा करने की बात कहीं भी नहीं की गई है। वहां तो ध्यान करने की बात हो रही है, और वह सब इस लिए है कि ब्रह्मचर्य को समझा जा सके इस लिए ही स्वामी दयानन्द ब्रह्मचर्य के एक महान उपासक थे, और उनका ही नहीं सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में ब्रह्मचर्य पर बहुत जोर दिया गया है यह कहा जाए तो गलत नहीं की सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य आधार भुत सिद्धान्त ब्रह्मचर्य की नीव पर ही खड़ा है। ब्रह्मचर्य तो रूपान्तरण की मुख्य किमीयां या विज्ञान है। इस विज्ञान को जिसने भी समझा वह स्वयं को सच्चे शिव का साक्षात्कार करके सदा-सदा की प्यास जो भौतिक किसी भी वस्तु को प्राप्त कर लेने पर भी बुझती वह भी बुझ जाती है। वह इस मृगतृष्णा से स्वयं को तृप्त और परम आनन्द को प्राप्त कर लिया है।
जो अन्रधे है उनकी आखें ठीक की जा सकती सकती है। आखों के ठीक होते ही प्रकास का प्रमाण मिल जाता है। लेकिन यह भौतिक आखों से नहीं देख सकते हैं। जिसको शिव का शिव नेत्र कहते है। उस नेत्र की जो बिधी है उसका यदि सही उपयोग करेंगे तो उसमें सक की कोई गुन्जाईस नहीं है जिसे कृष्ण परम ज्ञान या परम बचन कहते है उसकी अनुभूति नहीं कर सकते है, और यह शिव नेत्र हम सभी में है। आवश्यक्ता है मात्र उस आख को खोलने का और उसे खोलने की जो तकनिकी है उसे ध्यान कहते है। कृष्ण जिसे परम बचन कहते है वह सब परम बचन उन्होंने वेदों से लिए है। क्योंकि जो भी इस पृथ्वी आज तक उस संम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान और ब्रह्मज्ञान का श्रोत वेद ही है और आगे भी जो भी जाना जायेगा वह भी वेदों के अन्तरगत होगा। वेदों को एक अर्थ में आत्मा, ज्ञान, ब्रह्मचर्य, ऋत, और शिव को भी कहते है। क्योंकि आध्यात्म का अर्थ ही होता है अध्याय को आत्मा से जोड़ दिया है। अर्थात आध्यात्म आत्मा का पाठ आत्मा का ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान और ब्रह्मज्ञान का प्रारम्भ आत्मा से ही होता है। क्योंकि बिना आत्मा के शरीर मिट्टी से ज्यादा कुछ नहीं है। कृष्ण उसी के आधार पर बोलते है इस तरह से जो वेदों में है वह सब परम बचन है जिसे ना ही सत्य ही कह सकते है ना ही उनको असत्य ही कह सकते है। परम बचन इन दोनों के मध्य में है जिसे आत्मज्ञानी महापुरुष ऋत कहते है जो शास्वत और रहस्यपूर्ण है उसमें एक यह भी है की मानव सिर्फ शरीर नहीं है। इसके स्वामी इन्द्र राजा है।
मानव मन का शिकार हो गया वह अपने मन का दास बन गया और स्वयं को शरीर समझने की बहुत बड़ी बिमारी या महामारी का जो प्रकोप है उससे ग्रसित हो गया है।
इसका केवल इलाज है अन्तर्यामी के पास है। धर्म वह है जिसको अन्तर्यामी धारण करता है धर्म ही के पास एक मात्र समाधान है उनकी जो मानव में हजारों प्रकार की बिमारी हैं जिसमें से एक भयंकर बिमारी उब भी है उब सदा के सदा के लिए समाप्त हो सकती है या युं कहे की खत्म होने की भरपूर सम्भावना भी है। किसी ने आज तक सिद्ध पुरुषों के चेहरें पर किसी तरह की सिकन या संसार और उसकी प्रत्येक वस्तु से किसी प्रकार का द्वन्द बिरोध अन्तर्द्वन्द पिड़ा की शिकायत नहीं देखी है। लेकिन आज समय बदल गया है ऐसा लोग कहते है। वह जो मानव चेतना के बारें में नहीं जानते है कि चेतना कभी भी नहीं बदलती है। यहां इस जगत में एक अलग स्थिति पैदा हो रही है। जो कभी निराश, हराश, उदास किसी प्रकार का डेपरेसन का शिकार नहीं हुआ वह आदमी कैसा होगा क्या हम सब उसकी कल्पना कर सकते है, क्योंकि आज के समय में इस पृथ्वी पर स्वस्थ्य मानव को तलासना बहुत जोखीम भरा कठीन कार्य है उसकी सम्भावना कम ही हैं। जैसा कि हमने पहले ही विचार कीया था की दुःख मुख्यतः तीन तरह के होते है शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक तो इस सम्पूर्रण जगत में ऐसे बहुत है जो कहेंगे की मैं पूर्णरूप से स्वस्थ्य हूं। जो ऐसा कहते है वह शरीर से स्वस्थ्य है जिनमें मानसीक बिमारी की मात्रा सबसे अधीक है। दैविक और आध्यात्मिक परेशानि से लग-भग सभी लोग ग्रसित या पिड़ीत है। जो सिद्ध पुरुष होते है वह हमेंशा प्रफुल्लीत और तरोताजा आनन्दित उत्साहित रहते है। क्रयोंकि उनके जीवन में ध्यान की महत्त्व पूर्रण भुमिका होती है जो उन सभी को और उनके चेहरें को मुर्झाने नहीं देती है ध्यान का कार्य यही है कि जो भी पूराना है उसे खत्म कर देता है वह मानव अस्तित्व को रेफ्रेस करने का कार्य करता है।
जीवन से अद्वितीय और भी कोई वस्तु हो सकती है इसकी कल्पना भी फी करना असम्भव है, और यह भी बात है की जीवन से निकृष्ट भी कोइ वस्तु इस भुमंण्डल पर नहीं हैं। हम किसी भी विषय पर विचार दो प्रकार से कर सकते है। एक पक्ष ज्ञान का प्रकाश का जीवन का पाजटीव बिधायक दृष्टि है। दूसरा अज्ञान अन्धकार नकारात्मक जीवन का पक्ष है। एक तीसरा पक्ष भी है जिसके पक्ष में ऋषि, महर्षि, ब्रह्मज्ञानी, साधु, सन्त फकीर, योगी और सद्गुरु खड़े है। इस बात को समझ ले की यह सब केवल शरीर का प्रतिनिधित्व नहीं करते है यदि वह शरीर या आत्मा का प्रतिनिधित्व करतें है तो यह जान लेना की वह गुढ़ ज्ञान की दुनिया के अनुपम सम्राट नहीं बन पायें हैं। वह भी संसारी से कुछ अधीक नहीं है। जो यह तीसरा पक्ष है वही इस पृथ्वी पर सबसे बहुमूल्य अन्यथा सब कुछ कौड़ीयों का समाv है। यद्यपि ऋषि कह रहा है की यह शरीर भष्म होने वाली है अर्थात शरीर का अन्त होने वाला है। इसमें दो बातें है एक शरीर भष्म हो रही है और दूसरी बात है शरीर का अन्त होने वाला है। इसमें तुम सब कहोगे की नया क्या है दोनो का इर्रथ एक समान है जबकी वेद का मंत्र ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहा है। वेद तीसरी बात की तरफ संकेत कर रहे है। जो इसमें अनन्त निरन्तर यात्रा कर रहा है। द्रष्टा जो देखने वाला है ऋषि कहना चाहते हैं की साक्षी भाव को जागृत करने के लिए क्योंकि आगे मंत्र कह रहा है कृतम स्मरः अपने किये हुए कर्मों को देखो उनका निरीक्षण करों अथवा स्मरण करों। अब सवाल उठता है कि यह आत्मनिरीक्षण का कार्य कौन करेगा? जो भष्म हो रहा वह है या जो अन्त की तरफ निरन्तर एक-एक कदम बढ़ रहा है वह। या जो इस कृया को द्रष्टा बन कर जो देख रहा है। जो भष्म ही हो रहा है यह भष्म होने की कृया आन्तरीक घट रही है जिस प्रकार से दीपक का तेल खत्म हो रहा हो और दीपक में तेल खत्म होते ही वह बुझ जाएगा। उसी प्रकार से इस शरीर में भी जो प्राण उर्जा है समाप्त भष्म कोयले की तरह से राख हो रही हैं। इसलिए ही ऋषियों ने प्रणायाम जैसी बिधीयों का आविस्कार सृजन किया है। प्रणायाम क्या है? इसका उत्तर पतञ्जली दे रहें है। तस्मिन् सति श्वास प्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्रणायामः।। जो हमारी शांसे चल रही हैं श्वांस प्रश्वांस को उसको उसी स्रथान पर रोक देने का या उस पर अपना नियंत्रण करलेना ही प्रणायाम है। हम श्वांस में केवल आक्सिजन ही नहीं लेते है यद्यपि वह तो मात्र एक माध्यम की तरह से है उसके साथ हम सब प्राण उर्जा को ग्रहण करते है। अर्थात जिस तरह से हम सब रूपये को खुब बचा-बचा कर खर्च या व्यय करते है उसी तरह से प्रकार से एक योगी, ज्ञानी, ध्यानी प्राण उर्जा को व्यय करते हैं। जिससे इस खत्म होने वाली प्राण उर्जा को जल्रदी सामाप्त होने से बचाया जा सके।
श्रोत्रमसि श्रोत्रं में दाः स्वाहा। प्रभो तू श्रोत्र असी है मुझे तू सुनने की शक्ति दे यह मैं सच्चे मन से कह रहा हूं जिससे विश्वआत्मा का कल्याण हो। जिस प्रकार से हम सब रूपये को व्यय करते हैं बचा-बचा कर उसी प्रकार से यह प्राण उर्जा भी उससे भी बहुत अधीक किमती है। जो निरन्तर अपने अन्रत की तरफ ही बढ़ रहा है वह कैसे आत्मा का निरीक्षण कर सकता है? और अन्रत की तरफ यह शरीर ही बढ़ रही है। क्योंकि शरीर शाश्वत नहीं है यह शरीर मिट्टि के पुतले से ज्यादा नहीं लेकिन जो इस शरीर में रहने वाले को जानते है उनके लिए यह शरीर सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड के समान है। आत्मा भी स्वयं का आत्म चिन्तन नहीं कर सकती है क्योंकि आत्मा तो स्वयं पूर्ण और परम आनन्द में है वह अपने बारें में क्या चिन्तन करेंगी? यह कार्य तो बुद्धि को करना है इसलिए ही संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान चाणक्य कहते बुद्धि यस्य बलमं तस्य, अर्रथात जहां पर बुद्धि है वहीं पर बल है। एक किनारें पर शरीर है और दूसरें किनारें पर आत्मा है लेकिन द्रष्टा साक्षी भाव इन दोनो के मध्य में है। इस लिए ही वेद कहते है कि मध्रय में आ जाओ। जैसा की महात्मा बुद्ध कहते है मध्यमनिकाह् अर्थात ना सागर के इस तरफ जो शरीर की भांति है ना सागर के दूसरें किनारें पर ही जो आत्मा की तरह से है। इन दोनो किनारें पर नहीं ठहरना है क्योंकि यह दोनो किनारें खतरनाक है। यहां तो जो प्रय है वह भी अपना शिकार बना लेता है और जो दूसरें किनारें पर प्रय है वह भी स्वयं की आत्मा को गुलाम बनाकर दुःख ही देते हैं। यहो इस जगत में ना ही कोई प्रीय है ना ही कोई अप्रीय ही है। हमें को समान रूप से देखने की दृटि को विकसीत करने की आवश्यक्ता है जो ऐसा करते है उनको ही समदर्शी कहते है। जैसा की महात्मा बुद्ध कहते है जो समान रूप से सबको देखता है। जिसको ज्रयादा दुःख अपने शत्रु से होती है जो अप्रीय है। इसका मतलब यह है कि वह अपने मित्र से कही अधीक अपने शत्रु से जुड़ा है। क्योंकि नफरत का ही एक रूप उदासी बैराग्य है। अन्रतर सिर्फ इतना है जो शत्रु को देखने वाला व्यक्ति है यदि वह बुद्धिमान है तो वह उससे स्वयं को उलझाने के बजाय वह अपनी शक्ति को अपने शत्रु से लड़ने के बजाय किसी दूसरें कार्रय को सम्पन्न करने में लगाता है। बैराग्य के लिए पतञ्जली कहते है। दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा बैराग्यम्।। जैसा की कहा गया है नादान दोस्त से कहीं समझदार दुस्मन अच्छा है।
मुझे एक कहानी याद आरही है एक बार एक सम्राट अपने घोड़े से कहीं की यात्रा कर रहा था। उसने अचानक एक पेड़ के निचे एक आदमी को देखा जो अपना मुह खोल कर सो रहा था। क्योंकि कुछ लोगों की आदत होती है जो अपना मुह खोल कर सोते है। राजा ने जब देखा की उस आदमी के जो जंगल में अकेला एक बृक्ष के निचे उसकी छाया में सो रहा था और उसके मुंह में एक काला सांप घुस रहा था। राजा ने केवल उसकी पूंछ को ही देख पाया तब तक सांप उस आदमी के मुंह में अन्दर उसके पेट में चला गया। सम्राट क्या करें उसके लिए उसने अपना कोड़ा निकाला और उस सोये हुए आदमी पर बरषाना या उसको पीटना सुरु कर दिया। वह राहगीर जो बृक्ष के निचे सो रहा था वह जाग गया उसकी नीद खुल गई और यह देख कर उसको बहुत हैरानी हुआ की यह आदमी उसको क्यों मार रहा है। वह बुरी तरह से चिल्ला कर कहने लगा आप मुझे क्यों मार रहे है। मैंने आपका क्या बिगाड़ा है और तरह-तरह से उसकी विनती और उसकी प्रर्थना करने लगा। वह राजा बहुत शक्तिशाली मजबुत और उस राह गीर से काफी युवा भी था। उसने उस आदमी की एक नहीं सुनी। उसे बुरी तरह से पिटता रहा और उस रहगीर को मजबुर किया की वह उस बृक्ष के कच्चे सुखे सड़े-गले फल जो जमिन पर गीरे थे उसको खाये वह आदमी तो खाना नहीं चाहता था मगर जबरजस्ती उसको राजा ने तब तक मारा कर खिलाया जब तक की उसके पेट में गये सांप को उसने उल्टी नहीं कर दिया। जब सांप बाहर आ गया तो उसको देख कर वह आदमी तो आश्चर्य चकीत हुआ और वह राजा के चरणों को अहो भाग्य से भर कर पकण लिया। उस राहगीर ने राजा से कहा की आपने मुझको पहले क्यों नहीं बताया की मैंने सांप को निगल लिया है। राजा ने कहा की तुम नहीं जानते यदि मैं तुमसे कहता की तुमने सांप को निगल गए हो तो यह सुन कर ही तुम बेहोस हो जाते, इस दिशा में तुम्हारी मृत्यु भी हो सकती थी और उस दसा में तुम्हारें पेट से सांप को निकालना असंभव हो जाता। मेरें मारने से तुम्हारी मृत्यु नहीं हो गई है। मेंरा उदे्श्य भी यही था कि किसी तरह से तुम्हारी जान को बचाया जाये। यदि यह कार्य मैं तुमको पहले से बता कर करता तो ऐसा संभव नहीं था।
यहां पर जो दुश्मन की तरह से दिखाई दे रहा है वह एक समझदार शत्रु है जो उस आदमी का सच्चा शुभचिन्तक और परम मित्र था जिसने उसकी जान को बचा लिया। जैसा की कबीर कहते है कि निन्दक नियरें राखीये आंगन कुटी छवाय। बिन साबुन पानी बिना निर्मल करें स्वभाव।। अर्थात जो शत्रु की तरह दिखाई पड़ते है जो तुम्हारी निन्दा चुगली तुम्हें कष्ट देते है वह तुम्हारें जीवन में जो बिकार गन्दगी है उसको साफ करने का एक अवसर उत्पन्न करते है की अपनी गल्तीयों को सुधार लो बिना साबुन पानी के अर्थात बिना किसी खर्च या परीश्रम के ही।
इसी को बैराग्य या त्याग तपस्या कह सकते है और जो बुद्धि हिन है वह किसी रास्ते को तलासने के बजाय वह अपने शत्रु को सुधारने का प्रयास करने लगता है और किसी शत्रु को सुधारना कठीन ही नहीं असंभव है क्योंकि सुधार बाहर से नहीं होता है इसका अपना एक दूसरा ही पहलु है। जो मीत्र है उसे कम जानते है जिस दिन तुम अपने मीत्र को को गहराई से देख लोगें उस दिन उससे भी तुम दूर जाने लगोगे यह निश्चित है। मित्रतता के साथ शत्रुतता भी आती है। मित्रतता तो मात्र लिफाफे की तरह है जिसके अन्रदर शत्रुतता ही आरही है। इसका ज्ञान काफी समय के बाद होता जब प्रायश्चित करने का भी समय नहीं बचता है। इस लिए ही योग दर्शनकार पतञ्जली कहते है सुखानुसई रागः। अर्थात जिसमें सुख की अनुभूती होती है वह राग है जिसका अर्थ है किसी के आश्रीत हो कर जीवन को जीना राग तुम्हें स्वतन्त्र करने का बजाय वह सबसे अधीक परतन्त्र करता है। राग के कारण ही तो इस दुनिया में मोह मत्सर और अपना पराया है। दुःखा नुशई द्वेषः और जिसमें दुःख की अनुभूति वहीं द्वेष है। यह दोनो बहुत खतरनाक है। मानव अस्तित्व के लिए जो स्वयं को जानना चहते है स्वयं की प्राप्ती में सबसे बड़ी रुकावट है।
एक बार एक बहुत बड़े आश्रम के कुछ विद्वान कई सालों के बाद अपने गुरु से मिलने के लिए गए। उनके गुरु ने सबसे पहले उन सब के लिए काफी के तैयारी में लग गया क्योंकि वह सब उसके बहुत पुराने शिष्य थे। इस लिए उसने स्वयं रसोंई घर में जा कर उनके लिए काफी को तैयार किया। जो शिष्य उससे मिलने के लिए आये थे उनमें एक ने कहा गुरुवर हम सब की एक बहुत बड़ी कठीनाई है एक ऐसा प्रश्न जिसका जबाब हम सब के पास नहीं है उसके उत्तर कि आकान्क्षा को ले कर के ही हम सब आपके सामने उपस्थित हुए हैं। जब काफी तैयार हो गई तो उसको गुरु ने बड़ी थालि में सारें कपों को रख कर जिसमें कुछ बहुत महंगे सुन्दर सोने चांदी हीरें मोतीयों से जड़ीत किमती थे तो कुछ बिल्कुल ही सस्ते किस्म के कांच, मिट्टि, लकड़ी और ताबें, पितल के कप थे। गुरु ने काफी से भरें कपों को सबके सामने लेने के लिए बढ़ाया। उन सब शिष्यों ने जो किमती और सुन्दर कप थे उन सभी को बारी-बारी से एक-एक कप थाली में से उठा लिया और जो सस्ते किस्म आकर्षण हीन कप थे उसको किसी ने भी थाली में से नहीं उठाया। इसके बाद एक दुसरें के कप को सभी देखने लगे सभी कप एक से बढ़कर एक बहुमूल्य और सुन्दर थे। उसी समय गुरु ने कहा एक क्षण रुक कर हम सब बिचार करते हैं तुम कह रहे हो की तुम सब के लिए कोई कठीन प्रश्न है। तो उन सब में से एक ने कहा की हमें यह नहीं समझ में आ रहा है हमारें जीवन तनाव और डेपरेसन क्यों है?
गुरु ने कहा मैंने आप सब के सामने हर तरह के कपों को लाकर रखा और सब में काफी बराबर मात्रा में एक स्वाद वाली ही है। फिर भी तुम सबने काफी को भुल कर कप पर ही अपना सारा ध्यान केन्द्रित करके यह चाहते है कि जो किमती और अधीक सुन्दर कप थे उन सब को तुम सबने उठा लिया बजाय सस्ते और कम किमत के कपों को किसी ने भी नहीं लिया। यहीं हमारें सब के जीवन में भी हो रहा है। हम सब जो भी सुन्दर कीमती आकर्षण वस्तु है उसको प्राप्त करने के लिए ही आपस मे संघर्षरत है और उसकी मात्रा बहुत ही कम है इस लिए ही एक दुसरें में संघर्ष, तनाव, फसाद, पिड़ा संताप और दुःख सब के जीवन में है। जो मुख्रय जूवन है वह तो काफी के समान है और जो सारी पद प्रतिष्ठा घर, मकान, नौकरी, तमाम सामाजिक चिजें कप की भांति है। जो समझदार और ज्ञानी मानव है वह जीवन को देखता है क्योंकि जीवन का आनन्द उसी मे है और जो मुर्ख होते है वह जीवन को छोड़कर दूसरें तुच्छ्य पदार्थ जो कप की तरह से गौण हैं। उसी को पाने के लिए आपस में लड़ते है नहीं मिलने पर दुःखी और अकाल मृत्रयु से ग्रसीत होते हैं। यही तुम सब के साथ भी हो रहा है। तुम सब के जीवन में पीड़ा है इसका कारण है की तुम सब जीवन को छोड़ कर शरीर को ही सब कुच मान उसी के बिलास के लिए स्रवयं के जीवन के समर्पित कर दिया है जिसके परीणाम स्वरूप तुम सब का जीवन तुम सब के पास सब कुछ होने के बजाय भी तुम्हारें जीवन में दुःख और हजारों प्रकार के क्लेशों से भर लिया है।
यह आत्मा ना ही जन्म लेती है और ना ही मृत्यु को ही कभी उपलब्ध होती है। मृत्यु और जन्म शरीर के धर्म है आत्रमा के नहीं। यह आत्मा किसी का कर्म नहीं है ना ही किसी का उत्पादन कारण है यह तो शाश्वत सनातन स्वतन्त्र सत्ता है। जो अजन्मा नित्य शुद्ध बुद्ध सदा से चली आरही है शरीर के हिन्सीत होने से भी आत्मा नहीं मरता है। आत्रमा शाश्वत एक रस रहने वाली है। इस शरीर पर अघात करने से आत्रमा शरीर से पृथक हो जाता है तो मारने वाला समझता है की मैनें मार दिया और मरने वाला समझता है की मैनें मार दिया जबकी वास्तवीकता इसके बिल्कुल बिपरीत है।
हमारें महापुरुषों ने यह सब काफी सदियों पहले यह सब समझ लिया था। इसीलिए इसका समाधान भी हम सब को दे दिया। अपनी पवीत्र साधना के माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया वेदों के द्वारा, आत्मा को भी एक अर्थ में वेद कहते है और जो सभी प्रकार का सम्पूर्ण ज्ञान, विज्ञान, ब्रह्मज्ञान है वह वेदों में ही विद्यमान है। अर्थात आत्मा में ज्ञान है जो शाश्वत है आत्मा की आवश्यक्ता और उसकी पुर्ति के लिए ही उसके पास एक प्रबल सेवक भी है जिसको मन के नाम से जानते है वह आत्मा का सेवक और उसकी सेवा के लिए है। जिसमें सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड के जितने भी प्रकार के विषय और उससे संबन्धित जानकारी हैं वह सब संस्कार रूप से कई जन्मों का सब मन में ही विद्यमान है। जिसको जाग्रत करना होगा। अर्थात उस विषय में विषेश पुरषार्थ करना पड़ता है। उसको जानने समझने कि शक्ति जिसे मंत्र कहते है। एक अर्थ में मन को भी मंत्र कहते है। इसका तात्पर्य यह है कि मंत्र में जो सभी प्रकार के विषय है वह सब पहले ही मन में उपस्थित है मन को समझना ध्यान के माध्यम से मंत्रो को समझना एक समान है। मंत्रो के जरीए हम सब यह समझ सकते है कि विषय कितने प्रकार के है और उनसे मुक्त होने का मार्ग क्या है? उनका उपयोग करके स्रवयं के जीवन को सम्पन्न कर सकते है या फिर इस तरह से कहे की मंत्रों मे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की थ्योरी विद्यमान है